आज विश्व रेडियो दिवस है आज दशकों बाद गांव  से जुड़ी यादें अक्सर दिमाग में कौंध जाती है और फिर बचपन याद आ जाता है। लगता है एक खूबसूरत दुनिया खत्म हो गई।  लगता है कि काश वह समय दोबारा लौट आए। उस समय की यादें अक्सर उन फिल्मों के गाने को सुनने से ताजी होती है जो हमारे बचपन के दिनों में बजते थे। उन दिनों रेडियो कुछ चुनिंदा लोगों के पास ही होते थे और रेडियो का होना प्रतिष्ठा का सबब होता था। 
उन दिनों पूरे गांव में केवल जवेरचन्द जी जैन के पास फिलिप्स का एक रेडियो होता था। गांव में मात्र 5 -6 रेडियो ओर हुए । जब हम बहुत छोटे थे और गांव के स्कूल में पहली या दूसरी कक्षा में पढ़ते थे। हम दादाजी पुनमाजी बा के पास रेडियो सुनने जाया करते थे ,वे सब रेडियो को घेर कर चौकी या खटिया पर बैठते थे। कुछ तो रेडियो से कान सटा कर बैठते थे। वहां हम जैसे बच्चे भी जमा होते थे। हमारे लिए यह कौतुहल का विषय था कि आखिर उस छोटे डिब्बे से आदमी, ढोलक, हारमोनियम आदि की आवाज कैसे आती है। जो हमसे बड़े थे वे बताया करते थे कि इसके अंदर आदमी रहते हैं और वे ही बोलते और गाते हैं। हमारे लिए उन बातों पर विश्वास नहीं करने का कोई तर्क नहीं था। उस समय रेडियो भी हमेशा नहीं बजता था। सुबह आठ या दस बजे से बजना शुरू होता था और दोपहर में संभवत दो बजे बंद हो जाता था। फिर एक—दो घटे के अंतराल के बाद पुनः शुरू होता था। जहां तक मुझे याद है कि रेडियो से ज्यादातर बीबीसी , आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम और समाचार सुने जाते थे। जब कार्यक्रम का प्रसारण कुछ देर के लिए बंद होता था तो बड़े लोग हमसे कहते थे – रेडियो वाले लोग खाना खाने के लिए गए हैं। अब तुम लोग भी घर से खा-पीकर आ जाओ। हम इस बात को मान लेते थे और घर आ जाते थे।
आकाशवाणी पर वेद व्यास जी का समाचार पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता था । 1968 से 2001 तक उनकी आवाज कानों में गूँजती रही । वे राजस्थानी समाचारों के पहले वाचक रहे । आज भी मेरे गुरु की तरह है तथा उनसे निरंतर संपर्क कायम है। वे स्वस्थ रहे ,तंदुरुस्त रहे । आज रेड़ियो एक इतिहास बन गया है । जब जब रेडियो याद आता है तब तब बचपन भी याद आता है।
(रमेश पुरोहित तवाव)
#WorldRadioDay
उन दिनों पूरे गांव में केवल जवेरचन्द जी जैन के पास फिलिप्स का एक रेडियो होता था। गांव में मात्र 5 -6 रेडियो ओर हुए । जब हम बहुत छोटे थे और गांव के स्कूल में पहली या दूसरी कक्षा में पढ़ते थे। हम दादाजी पुनमाजी बा के पास रेडियो सुनने जाया करते थे ,वे सब रेडियो को घेर कर चौकी या खटिया पर बैठते थे। कुछ तो रेडियो से कान सटा कर बैठते थे। वहां हम जैसे बच्चे भी जमा होते थे। हमारे लिए यह कौतुहल का विषय था कि आखिर उस छोटे डिब्बे से आदमी, ढोलक, हारमोनियम आदि की आवाज कैसे आती है। जो हमसे बड़े थे वे बताया करते थे कि इसके अंदर आदमी रहते हैं और वे ही बोलते और गाते हैं। हमारे लिए उन बातों पर विश्वास नहीं करने का कोई तर्क नहीं था। उस समय रेडियो भी हमेशा नहीं बजता था। सुबह आठ या दस बजे से बजना शुरू होता था और दोपहर में संभवत दो बजे बंद हो जाता था। फिर एक—दो घटे के अंतराल के बाद पुनः शुरू होता था। जहां तक मुझे याद है कि रेडियो से ज्यादातर बीबीसी , आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम और समाचार सुने जाते थे। जब कार्यक्रम का प्रसारण कुछ देर के लिए बंद होता था तो बड़े लोग हमसे कहते थे – रेडियो वाले लोग खाना खाने के लिए गए हैं। अब तुम लोग भी घर से खा-पीकर आ जाओ। हम इस बात को मान लेते थे और घर आ जाते थे।
आकाशवाणी पर वेद व्यास जी का समाचार पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता था । 1968 से 2001 तक उनकी आवाज कानों में गूँजती रही । वे राजस्थानी समाचारों के पहले वाचक रहे । आज भी मेरे गुरु की तरह है तथा उनसे निरंतर संपर्क कायम है। वे स्वस्थ रहे ,तंदुरुस्त रहे । आज रेड़ियो एक इतिहास बन गया है । जब जब रेडियो याद आता है तब तब बचपन भी याद आता है।
(रमेश पुरोहित तवाव)
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